अरे बहुत हुआ सम्मान, तुम्हारी ऐसी तैसी

हिंदी फिल्म इंडिस्ट्री के ‘स्कॉर्सेसेअनुराग कश्यप कृत ‘मुक्काबाज़‘ के हीरो हैं उत्तर प्रदेश के ‘माइक टायसन, श्रवण कुमार. मुक्केबाज़ी उसका ‘पैसन‘ है. और सुनैना उसका ‘प्रेम‘. ‘पॉलिटिक्स‘ उसके प्यार और पैशन की राह का रोड़ा है. ‘जातिवाद’ की दीवार बनकर खड़ा है ‘भगवान् दास मिश्रा‘ और पहाड़ से ऊंचा उसका अहम. जनाब अपने ज़माने के मुक्केबाज़ रहे हैं और ‘इंजेक्शन’ लगा लगा के अपनी ‘बीड़ी‘ में ‘तम्बाकू‘ ख़त्म कर लिए हैं.

अनुराग की सभी फिल्मो की तरह इस फिल्म में भी अनेक परतें हैं और अपनी समझ के अनुसार देखने वाले कहानी में डूब के मर सकते हैं.
फिल्म ‘ नो स्मोकिंग‘ में अनुराग ने मुक्का मारा था सेंसर बोर्ड को. इस बार ‘कह के लिए’ हैं ‘देसी वोल्डेमॉर्ट‘ की. नाम लिए बिना सीधे तौर पर वह सब कह गए जो ‘नो स्मोकिंग‘ में बिना कहे इंडीकेट किये थे.

बाबा बंगाली‘ की तरह ‘भगवान् जी मिश्रा‘ हमारे स्वार्थी, क्रूर, भ्रष्ट सिस्टम का प्रतीक है. यह अनुराग का मुक्का है हर उस ‘कम अक्ल’ लेकिन एफ्लुएंट जाती/क्लास/सेक्शन के आदमी को, जो नपुंसक होते हुए भी खुद को भगवान् समझता है .जो ‘तुम जानते नहीं हम कौन हैं’ का पट्टा गले में बांधे फिरता है, और आदेश देना अपना हक़ समझता है..

सिस्टम से लड़ना आसान नहीं होता. सब जानते हैं. पर जब सिस्टम को उसके घर में उसके किये के लिए सरे आम मुक्का मारा जाए, तो सिस्टम तुम्हें किस तरह अपने पालतू कुत्तो से कटवा सकता है और ज़िन्दगी झंड कर सकता है, यह इस फिल्म में देखा जा सकता है.

 

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कास्ट: विनीत कुमार सिंह इस ‘रेजिंग बुल‘ के ‘रोबर्ट डे नीरो‘ हैं. जहां नवाज़ ‘फैज़ल खान‘ को ‘वासेपुर’ के बाद रातों रात स्टारडम मिल गया. ‘दानिश बेटा‘ को लीड रोल के लिए लम्बा संघर्ष करना पड़ा. डेढ़ साल की इंटेंस ट्रेनिंग ली ओरिजिनल बॉक्सर्स के साथ. बनारस के घाट पर प्रैक्टिस करते श्रवण कुमार जब अपनी शर्ट उतारते हैं, मानो सालों की महनत पसीना बनकर निकलती है.
बहुत खूबसूरत नैन नक्श वाली ज़ोया ने ‘सुनैना‘ का किरदार निभाया है. सुनैना जनता की तरह मूक नहीं रहती. अपनी बोलती आँखों से बगावत कर बैठती है..
जिम्मी शेरगिल, ‘भगवान् मिश्रा ‘ के रूप में अवतरित हुए हैं फिल्म में. उम्मीद से कहीं ज़्यादा घटिया इंसान के रूप में. ‘रावण‘ के रूप में ‘दुर्योधन‘. रावण ज्ञानी था. जन्म से ब्राह्मण. कर्म से क्षत्रिय. ‘भगवान् मिश्रा’ सिर्फ जन्म से ब्राह्मण हैं. कर्म से शूद्र.
साथ में पूरा धन्यवाद देना चाहिए ‘रवि किसन‘ को. युशुअल से कहीं अलग,’नॉर्मल’ ढंग का अभिनय करने के लिए.
दानिश‘ का साथ देने ‘फैज़ल‘ भाईजान भी आते हैं. कैमियो रोल में. अपने देव डी वाले हरीश बैंड के साथ, पर ‘पटना के प्रेस्ले‘ के बिना.

 

कहानी: ‘रॉकी‘ वाले ‘सिल्वर स्टैलोन‘ की तरह विनीत ने इस फिल्म की कहानी लिखी है. अनुराग ने इसमें अपना तड़का लगाया है. मेरी नज़र में इसकी बेसिक कहानी इसे अब तक की सबसे बेहतरीन स्पोर्ट्स फिल्म बनाती है. जो बिना किसी ओवेर्ट ग्लोरिफिकेशन के, खिलाड़ी के सच्चे संघर्ष और सिस्टम के घिनोने और क्रूर सच को सामने रखती है.

गीत/संगीत : फिल्म देखने से पहले ‘मुश्किल है अपना मेल प्रिये‘ और नुक्लेया का ‘पैंतरा‘ ज़बान पर चढ़ चुका था. महीनो के बाद किसी हिंदी फिल्म के गाने लूप पर सुने. फिल्म देखने के बाद ‘बहुत हुआ सामान‘ समझ आया. यह सच में एक एंथम है. सिस्टम के खिलाफ एक जंग है. इसे लिखा है ‘कम्यून’ वाले हुसैन हैदरी ने. उन्ही का लिखा ‘छिपकली‘ सिस्टम की असलियत और उसके चुंगल में फसे आदमी की कहानी कहता है. फिल्म के सेकंड हाफ में बैकग्राउंड में बजता क्लासिकल ‘बहुत दुखा मन‘ एल्बम का अंडर डॉग गीत है. फिल्म की कम्पोज़र रचिता अरोरा ने ‘श्रेया घोषाल’ सी आवाज़ में गाया है. इसका म्यूजिक हौन्टिंग है. विनीत ने कहानी के साथ साथ एक बहुत ही दिल पसीज देने वाला गीत ‘अधूरा मैं’ भी लिखा है. इस गीत को गया है ‘हमनी की छोड़ी के’ वाले दीपक ने. गाने में सिर्फ हारमोनियम और दीपक की आवाज़ है . बस. इतना बहुत है. सुनियेगा इसे.

डायलॉग: अनुराग की फिल्म हो, और भोकाली डायलॉग न हो. ऐसा हो सकता है, भला? खैर यहां नहीं लिखते, सिनेमा थियेटर में जाकर सुनियेगा. ताली बजाये बिना वापस नहीं आएंगे. ‘लिख के देते हैं’.

सीन: ‘काऊ विजलैंटिस्म’ वाले सीन खौफ खड़े करते हैं. श्रवण का अपने पिता से उसके ‘पैसन‘ को लेकर बहस और करारा जवाब कमाल है. जीतने के बाद जब श्रवण की रेलवे में नौकरी लग जाती है, उनका मोनोटोनस रूटीन दिल दहला देता है. बैकग्राउंड में बजता ‘छिपकली’ ह्यूमर क्रिएट करने की कोशिश में सफल होता है. ‘रिवर्स कासटिस्म‘ का उदाहरण बखूबी दिखाया गया. अनुराग ‘ट्रेजेडी में कॉमेडी‘ के माहिर रहे हैं सदा. ‘सर्वेलेंस‘ वाला डायलाग फनी है पर सिचुएशन क्रिटिकल. बस, अब ज़्यादा डिस्क्लोज़ नहीं करेंगे.

एडिटंग: अगर खामखा ही कोई गलती निकालनी हो, तो हाँ यहां थोड़ी कमी रही. गाने ठीक से ‘सिंक’ नहीं होते फिल्म में. अचानक शुरू होते हैं और अचानक ख़त्म. गाने हमेशा ही अनुराग की फिल्मो के मूल हथियार रहे हैं. पर इस बार अच्छे से इनकॉरपोरेट नहीं हो सके. रनिंग टाइम भी फिल्म का थोड़ा काम किया जा सकता था. पर मुझे कोई ख़ास परेशानी नहीं.

इस फिल्म में न सिर्फ लोग नए हैं, बल्कि अनुराग भी अपने २.१ अवतार में सामने आये हैं . ‘गैंग्स ऑफ़ वास्सेपुर‘ ने ही हमें पिछले साल के सबसे बड़े सितारे ‘राज कुमार राओ‘ से ‘नवाज़ा‘ था. अनुराग की यही खूबी है. हर बार ऐसे ऐसे तीस मार ‘खान’ ढूंढ कर लाते हैं, जो अकेले तीनो ‘खानों’ को चारो खाने चित्त कर दें.

यह सिर्फ अंडर डॉग के हीरो बनने की कहानी नहीं. और न ही सिर्फ भारत में स्पोर्ट्स की असलियत की. यह कहानी है ‘सर्वे सर्वा’ सिस्टम में ज़िंदा रहने की जद्दो जहद की, अपनी शर्तो पर. पहली बार देखने के बाद लगा की खामखा ही ‘भारत माता की जय’ ब्रिगेड से पन्गा लिया. सिर्फ स्पोर्ट्स पर कंसन्ट्रेट किया होता तोह यह महान फिल्म होती. पर बाद में समझ आया की कहानी का मूल मकसद कुछ और था. यहां भी ‘नो स्मोकिंग‘ की तरह अनुराग कुछ अलग ही कहानी कह रहे हैं.

यह फिल्म अनुराग की बाकी फिल्मो की ही तरह ज़्यादा चलेगी नहीं. लोग अभी इतनी जल्दी कहानी को समझेंगे नहीं. यह सिस्टम की जीत होगी. और यही बात अनुराग अपनी इस फिल्म में कहना भी चाहते हैं. ऐसा भी लगता है कि अनुराग ने सबक लिया है. उम्मीद है कि अब वे बेवजह सिस्टम से लड़ेंगे नहीं. अनुराग का हथियार उनका सिनेमा है, ट्विटर हैंडल नहीं. शायद इसलिए कि उन्हें कुछ बड़ा कहना हैं, अनुराग ने अपनी इस फिल्म को पूरी तरह ‘फैमिली एंटरटेनर’ बनाया है. अनुराग कि पहली फिल्म जिसमें एक भी गाली नहीं. कमाल है.

इस फिल्म को गुलाल, वास्सेय्पुर, नो स्मोकिंग और ब्लैक फ्राइडे की तरह मैं पचासों बार नहीं देख सकता. यह इस फिल्म की कमी नहीं. यह नतीजा है इस फिल्म का सच्चाई से कुछ ज़्यादा ही करीब होना, ‘अगली’ से भी ज़्यादा करीब और घिनौना प्रतीत होना . बातों का कुछ ज़्यादा ही निर्भीक होकर कह जाना. इस फिल्म का ‘सिस्टम का आईना‘ होना. अनुराग अब ‘‘ की तरह ऐरोगेंट नहीं रहे. ‘श्रवण‘ की तरह सेंसिटिव और नाईव दिखाई पड़ते हैं. शायद इसलिए भी यह फिल्म कुछ अंदरूनी घाव छोड़ जाती है. दूसरी बार देखने पर शायद कुछ और बातें मिले कहने के लिए. तब की तब. अभी के लिए इतना ही.

मुक्केबाज़ से मुक्काबाज़ तो हुए, ग़म है.

पर ‘भगवान् मिश्रा’ को मुक्का मार के,इस बात का फक्र है.

अनुराग की फिल्म की तरह यह ‘मुक्का’ भी समर्पित है , “तुम जानते नहीं हम कौन हैं’ वाले मूढ़ बुद्धि ‘भगवान् जी मिश्रा’ को!

 

भारत माता की जय!

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